संतोष प्यासा:
सत्य विचलित था, लोकतंत्र न्याय की आस में आंसू बहा रहा था  और पत्रकारिता मौन थी। आज तीनो  ( सत्य, लोकतंत्र और पत्रकारिता) ने तय कर लिया की न्याय से मिल कर रहेंगे। तीनो भटकते हुए न्याय के पास पहुंचे। आज भी न्याय अपने ओजपूर्ण स्वरुप में था। सबसे पहले लोकतंत्र ने अपनी करुण कथा प्रारम्भ की। लोकतंत्र बोला, हे न्याय क्या तुमको तनिक भी मेरी दशा का भान नहीं है? देखो आज मेरा क्या हाल है। मुझे स्थापित करने के लिए शहीदों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। लेकिन आज मैं शहीदों के स्वप्न को साकर करने में बेबस हूँ। आज मुझे लोकतंत्र से लोभतंत्र में बदल दिया है । मेरा तो बस नाममात्र ही शेष रह गया है। देखो आज मैं तुम्हे (न्याय को) पाने के लिए दर दर भटक रहा हूँ । न्याय ने मौन नहीं तोडा ।  लोकतंत्र अपने प्रारब्ध पर सिसकता रहा। तभी पत्रकारिता ने भी अपनी विवशता का बखान शुरू किया और कहा, हे न्याय मेरी उत्पत्ति का एकमात्र कारण था कि मैं (पत्रकारिता) लोकतंत्र का सहयोग कर सकूँ, मुझे जिम्मेदारी की मशाल सौंपी गयी थी , ताकि मैं धर्म की रक्षा करते हुए तुम्हारा (न्याय का) अस्तित्व सदैव स्तंभित रख सकूँ। लेकिन आज मेरे ही वाहक (पत्रकार)  मेरा सौदा कर रहे हैं । अब तुम ही बताओ मैं लोकतंत्र को तुमसे (न्याय से) कैसे मिलाऊँ? न्याय अब भी मौन है....। तभी सत्य भी अश्रु व् विषाद से ओत प्रोत होकर बोला उठा, हे न्याय, देखो आज मैं खुद तुम्हे (न्याय को) पाने के लिए भटक रहा हूँ। मेरा अस्तित्व खोता जा रहा है। मुझे अति महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौपते हुए कहा गया की तुम (सत्य) लोकतंत्र व् पत्रकारिता की गरिमा व् वर्चस्व को सदैव दीप्तिमान रखोगे। लेकिन देखो आज मुझे (सत्य को) कोई पूंछता भी नहीं । सभि मुझे दुत्कार देते हैं। मैं हर जगह मात्र उपेक्षा ही पाता हूँ । सत्य ने आंसू पोंछते हुए कहा।
अंतत: न्याय ने मौन तोडा और कहा, मित्रों व्यर्थ व्यथित और चिंतित मत हो। क्या तुम भूल गये, "न्यायस्य शनैः गति:"  मेरी (न्याय की) गति धीमी होती है। न्याय ने सबसे पहले लोकतंत्र से कहा , तुम निश्चिन्त रहो जब तक सत्य और पत्रकारिता है तब तक तुम्हारा पतन नहीं हो सकता।
न्याय ने अब सत्य से कहा, हे सत्य मानता हूँ की आज तुम्हारी स्थिति दयनीय है। लेकिन क्या तुम भूल गए की तुम्हे(सत्य को) परेशान तो किया जा सकता है लेकिन पराजित नहीं। तुम अजेय हो....।
अब न्याय ने पत्रकारिता से कहा। तुम व्यर्थ की चिंता त्याग दो। मानता हूँ कि तुम्हारे (पत्रकारिता) अधिकांश वाहक  आज तुम्हारा साथ न देकर , भृष्टाचार के तलवे चाट रहें है। लेकिन क्या तुम भूल गए कि घोर अंधकार में भी एक अकेला जुगनू अँधेरे को चुनौती दे देता है। क्षण मात्र के लियेही सही किन्तु अंधकार को समाप्त तो कर देता है। हे पत्रकारिता, शास्त्र कहतें हैं "नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यम् त्वम्
एव तनुषे चेत् ।
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: ॥
अरे हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध
भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तूम्हारा यह कुलव्रत का
पालन कर सकता है ? यदि बुद्धीवान तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ? तुम निष्ठा व समर्पण के साथ अपना कर्तब्य  पालन करते रहो।
अंततः न्याय ने न्याय कर दिया। अब लोकतन्त्र, पत्रकारिता व् सत्य निश्चिन्त हैं।
सत्य पराजित नही होगा। लोकतंत्र लज्जित नहीं होगा और पत्रकारिता सदैव सत्य की स्थापना व् लोकतंत्र का परित्रण करती रहेगी।
न्यूज मिरर के लिए संतोष प्यासा की संपादकीय
सर्वाधिकार न्यूज मिरर के पास पत्रकारिता और न्याय

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